Wednesday, April 24, 2013

वाकया

किसको क्या इलज़ाम दूँ मैं ...
अपनों के हाथों  मजबूर हर बार ठहरा ...
लोग बनाते रहे तमाशा सरे राह ....
मुफलिसी के चलते कसूरवार ठहरा ....

क्या गिला करूँ किसी से ... सब मेरे अपने है ...
उनके एहसानों का मैं  कर्जदार ठहरा ....
करने जाऊ तो बहुत कुछ कर जाऊ मैं ...
उनकी खता पे भी डपट न पाउ .. इतना  लाचार ठहरा ....

ख़ामोशी को केसे कमजोरी समझ लेते है लोग ...
समझ आया जब वाकया ये मेरे साथ इसबार ठहरा ...

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