Wednesday, July 3, 2013

गंगा की पीड़ ....

 कहते है सब मैं निर्दयी कैसे हो गई ...
माँ होके भी अपने बच्चो को कैसे निगल गई ...
क्यों इतना क्रोधित हुई की प्रलय ही ले आई ...
कैसे मुझे मासूमो पे जरा भी दया न आई ...

मेरे बेटों कहो जरा क्या लालसा तुमने न बढाई ...
मेरे दामन को सिकोड़ क्या तुमने न बस्तिया बसाई ...
पावन पावन कहके क्या मुझमे गन्दगी न बहाई ...
क्या तुमने मेरी राहों में अडचने न लगाईं ...

निर्मल जल को मेरे क्या तुमने गन्दगी न बहाई ....
हरे भरे आशियाने उजाड़ पत्थरों की बस्तिया न बसाई ...
माँ कहके पुकारा मुझे पर क्या बच्चो की परंपरा निभाई ....
अभी भी वक़्त है संभल जाओ .... वरना होगी पूरी तबाही ....


  

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