Friday, July 31, 2015

दोहरा मापदंड

 पड़ोस के घर में  काम करने वाली संतोष कि बेटी छवि ने ख़ुदकुशी
करली सुनके मैं सकते मैं आ गया।  कुछ महीनो पहले उसका कुछ
निर्दयी अमीरज़ादों ने बलात्कार कर दिया था।  न्याय कि मांग लेके
जहाँ तहां कि ठोकरे खा रही थी। पर हर किसी ने बस दुत्कार दिया।
मासूम कि सहायता  दूर लोगों ने उसपे ही सवाल खड़े कर दिए।जिस 
लड़के से उसकी सगाई हुई थी उसने भी सगाई तोड़ दी।खुद छवि के
पिता भी उसे  " कलंकिनी " कहने से बाज नहीं आता। 

वहीँ दूसरी तरफ एक विदेशी पोर्न फ़िल्म स्टार कि आने वाली फ़िल्म 
में बहुत से लोग उत्सुक दिख रहे थे कि इस विदेशी बाला कि अदाकारी 
कैसी होगी हिंदी चलचित्र में  इनमे बहुत से वो लोग भी थे जो छवि को
 " कलंकिनी " कहके मुंह फेर लेते थे। 

यह कैसा दोहरा मापदंड है समाज का जहाँ एक पीड़ित को सहानुभूति 
के दो बोल नहीं मिल पाते और कला के नाम पे पोर्न स्टार को सराहा 
जाता है। 

विष्णुकांत साबू 
सीकर (राजस्थान)



बहाना ए मसरूफियत



बहाना ए मसरूफियत मिल जाता है
बस नज़र अंदाज़ है करते
इतने भी मसरूफ नहीं हो तुम की
देख कर मुस्कुरा भी न सकते

गुजरते है कई दफा नज़रों के सामने से
देखते भी नहीं जैसे हम अनजान हो कोई
शिकवा करते है तो जवाब नहीं देते
आजकल वो पुकार नहीं सुनते कोई


सुना था हमने वक़्त के साथ 
अक्सर हालत  है बदल जाते  
देखा है हमने तो यहाँ पर की 
खुदगर्जी से किरदार है बदल जाते 

मज़बूरी का नहीं है ये रब्त ए मोहोब्बत 
जो न चाहते हुए भी है निभाए जाते 
दिल मिले तो खुश आमदीद 
न मिले हम भी नहीं है बुलाते 




Thursday, July 30, 2015

कैसे ज़मीर से नज़र मिलाते हो

आतंकियों के लिए लग जाती है
रातों को भी अदालत यहाँ
गरीबो के लिए तो दिन में
किसी को फुर्सत नहीं मिलती

लग जाता है हुजूम बचाने में
इन्साफ पर भी प्रश्नचिन्ह लगाने में
कर दिए दिन रात एक बचाने में
कहते है खता हुई है अनजाने में

कभी हाल भी पूछा क्या उनसे
जो घायल हुए थे उन धमाको में
क्या मिले उनसे जो अपनों को
खो बैठे इन सनकी जिहादों  में

खुद की जान पर बन आई तो
घर के मासूमो की याद आई
कहाँ गयी थी अकल तुम्हारी
जब बेगुनाहो की धज्जिया उड़ाई

गुहार मानवता की लगाने लगे हो
मानवाधिकार अब जताने लगे हो
मौत के खौफ से अब तुम
हर पैंतरा आजमाने लगे हो

क्यों किसी मज़हब के नाम पर
ये क़त्ल -ए -आम मचाते हो
ये बताओ जरा हमे भी आज
कैसे ज़मीर से नज़र मिलाते हो

Wednesday, July 29, 2015

देश्भक्ति पर है सियासत भारी

अल्बत्ता तो गुनाहगार पकडे ही नही जाते,
पकडे जाये तो भी सज़ा नही पाते


सज़ा देने जाते है तो सियासत हो जाती है 
कुछ मानवता प्रेमियो की मानवता जग जाती है 


अज़ब गज़ब तर्क दे जाते है ये मानवता प्रेमी 
जीवन नही दे सकते तो मौत क्यू देनी ?


कुछ तो न्यायालय को भी धत्ता बताते है 
ये खुद ही दोष निर्दोष तय कर जाते है 


जाने कौनसे नमक का कर्ज ये चुकाते है 
जिन्हे खूनी भी पाक साफ़ नज़र आते है 


इन सबपे बस यही कहती है कैल्कुलेश्न हमारी 
भइया देश्भक्ति पर है सियासत भारी