Thursday, July 30, 2015

कैसे ज़मीर से नज़र मिलाते हो

आतंकियों के लिए लग जाती है
रातों को भी अदालत यहाँ
गरीबो के लिए तो दिन में
किसी को फुर्सत नहीं मिलती

लग जाता है हुजूम बचाने में
इन्साफ पर भी प्रश्नचिन्ह लगाने में
कर दिए दिन रात एक बचाने में
कहते है खता हुई है अनजाने में

कभी हाल भी पूछा क्या उनसे
जो घायल हुए थे उन धमाको में
क्या मिले उनसे जो अपनों को
खो बैठे इन सनकी जिहादों  में

खुद की जान पर बन आई तो
घर के मासूमो की याद आई
कहाँ गयी थी अकल तुम्हारी
जब बेगुनाहो की धज्जिया उड़ाई

गुहार मानवता की लगाने लगे हो
मानवाधिकार अब जताने लगे हो
मौत के खौफ से अब तुम
हर पैंतरा आजमाने लगे हो

क्यों किसी मज़हब के नाम पर
ये क़त्ल -ए -आम मचाते हो
ये बताओ जरा हमे भी आज
कैसे ज़मीर से नज़र मिलाते हो

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