आज पुराने दरख्त ने आवाज़ दी है...
जिसकी छावों में हर दोपहर गुजरा करती थी...
उन शाखाओं ने आवाज़ दी है...
जिनसे बचपन में गिल्ली-डंडा बना करती थी...
गाँव की वो नदी फ़िर बुला रही है मुझे...
जिसमे घंटो अठखेलियाँ करते थे हम...
उन गलियों ने फ़िर से पुकारा है....
जिनमे यु ही बेमकसद घुमा करते थे हम....
आज वो दरख्त अकेला है...
क्यूंकि अब बुड्ढा गया है वो...
वो शाखों पे कोई नही झूलता....
क्यूंकि जर्जर हो गई है वो....
वो नदी भी कुछ उदास सी है....
क्यूंकि अब वो उफान नही रहा उसमे...
भीड़ भाद में भी वो गलियां सुनी सी है...
क्यूंकि किसी के पास रुकने की फुर्सत नही है....
आज फिरसे उन बीते दिनों को जीने की चाह है.....
जिन दिनों के बीत जाने की तब हम दुआ करते थे....
आज फ़िर से वोही बचपन के दिन चाहता है मन...
जिन दिनों में जल्द से जल्द बड़े होने की ख्वाहिश रखते थे....