Tuesday, July 1, 2008

जज्बात....

लम्हा-ऐ-रुखसती तेरी दिल तो मेरा भी जार जार रोया...


बस तेरी तरह मैं अपनी पलके न भिगो सका...


शायद यही वजह है की तुमने


मुझे संगदिल मान लिया.....



था तो बहुत कुछ बयां करने को रस्म-ऐ-मोहोब्बत में...


पर अपने जज्बात मैं अल्फाजों की शकल में न ढाल पाया...


शायद यही वजह है की तुमने समझा...

मुझे इश्क से कोई इत्तेफाक नहीं है....

पर हर दर्द रोके ही तो बयां नही होता....

हर जज्बात कहके ही तो बयां नहीं होता....

रस्म-ऐ-मोहोब्बत तो खामोश रहके के भी निभाई जाती है...

पर सच ये भी है.... कुछ बातें कहके ही बतायी जाती है....

2 comments:

Anonymous said...

bhut badhiya. likhate rhe.

seema gupta said...

पर हर दर्द रोके ही तो बयां नही होता....
हर जज्बात कहके ही तो बयां नहीं होता
"so true, so true n true"

Regards